Tuesday, February 10, 2015

ग़म-ऐ-वफ़ा

ख़ुशी गुमराह थी, या तेरा ठिकाना
न मंजिल थी उसकी तेरा ठिकाना ,
ग़म-ऐ-वफ़ा  को गले से लगा ले
न होगा ये आलम, ग़मों का ठिकाना।।

Saturday, August 2, 2014

हमराह

दोस्तों  की महफ़िल  में
चमकता सितारा हो तुम ,
रात का चिराग
और दिन का उजाला हो तुम ,
वैसे तो हजारों हैं
जिंदगी के सफर में,
दिल की धड़कन का 
एकमात्र सहारा हो तुम । 
सूरज की पहली किरण 
और मेरा पहला  ख्याल हो तुम ,
एक गुमराह  मुसाफिर के 
जीने का सवाल हो तुम ,  
ऐ हसीं दोस्त-
ये महज़ आँखों का धोखा है  
या सच में मेरी हमराह हो तुम ।।  

Wednesday, October 10, 2012

बस याद साथ है !

मन का प्यारा-सा आँगन
जब यादों से भर जाता है,
आरे में रखा ज्वलित दीपक भी 
चुपके से बुझ जाता है,
अंधियारी घोर स्याह चादर 
इस आँगन को ढँक लेती है,
खामोशी ईद मनाती है और 
दिल गुमसुम हो जाता है।

तब विकल हताशा की लहरें 
गुमसुम दिल से टकराती हैं,
भूली बिसरी-सी यादों का 
मंजर ताज़ा  हो जाता है,
कुछ ताज़ा  यादों का मंजर 
बस सपना बन रह जाता है।

कुछ यादों की मृदुल घड़ियाँ 
दिल दर पर दस्तक देती हैं,
तब सबसे प्यारे लम्हे भी 
कांटे बन चुभने लगते हैं,
फिर दर्द थामने का जिम्मा 
ये पागल दिल ले लेता है,
उस बेहाल अवस्था में 
दुनियां सूनी-सी लगती है।

छल, कपट, स्वार्थमय  अपना जग 
बेगाना लगने लगता है,
बस यादें अपनी होती हैं 
बाकी सब सपना लगता है 
बाकी सब सपना लगता है।।
           

Thursday, September 20, 2012

आम का सूखा बूढ़ा पेड़

आज भी वैसा ही खड़ा है,
पोखर के किनारे
कई सौ साल पुराना,
आम का बूढ़ा सूखा पेड़ ।

बह गई है जड़ों की मिटटी 
सड़क से गिरते 
बारिश के पानी में,
पत्ते भी झर  गए हैं सारे 
आँधी में,
सूखकर,
खूँटा बन चुकी हैं मवेशियों का 
बाहर झांकती सूखी जडें,
फिर भी अडिग खड़ा है 
सीना फुलाए गर्व से,
आम का बूढा सूखा पेड़।


पहले तो गाना सुनाते रहते थे 
टहनियों को घर बनाये 
हजारों पक्षीं,
वो भी किनारा कर गए हैं 
छोड़कर मायूस सूना पेड़ ,
सदा के लिए,

कुछ एक बचे भी हैं,
चले जायेंगे दो चार दिनों में।

न जाने कितने पत्थर झेले थे
हरियाली के दिनों में,
और अब ?
काटने लगीं हैं टहनियां भी,
एक एक करके जलाने के लिए।
सुबकने लगा इतने पर 
पोखर के किनारे खड़ा 
कई सौ साल पुराना 
आम का सूखा बूढा पेड़। 
            

Tuesday, September 4, 2012

सपनों की उड़ान

मन के अति सुदूर कोनों तक
फैले मूक-बधिर सागर में,
तैर रहे हैं पंख पसारे
स्वप्न-हँस,
नभ में समीर से ।

दूर तलक उड़ने को आतुर
उफन रही हैं नम आँखें भी,
लिपट गई है तन-शाखों से
आश-लता,
वन में भुजंग सी ।


शीतल शांत स्वच्छंद सतह पर
फैली सूरज की लाली में,
लटक रहे हैं थाम तंतु-रवि
मन-पंछी,
सावन मल्हार से ।

सजल किनारों की रेती के
आत्मसंयमित चिर भूतल में,
दौड़ लगाने को अभिलाषित
भाव-अश्व,
जल में सियार से ।

स्वर्ण-जडित पिंजरे का कैदी
जिगर विह्वल हो बोल उठा है,
चमक रहे हैं क्यूँ दिन में भी
चाँद-सितारे,
मोर पंख से ।

मन के अति.................